Thursday, November 10, 2011


कभी चीखती है ख़ामोशी कानों में,
और रुआंसी, सी हो जाती है चेहरे की हंसी,
वो एक आवाज़ बजती है, कहीं दूर अब भी,
मै पागल नहीं, जो दौड़ता हूँ अनजान साए के पीछे,
घडी अब भी रुकी है उसी वक़्त पर,
दरवाजा भी एक आस लिए खुला है,
उड़ती है आँगन की धूल बेचैन होकर,
वो कदम जो गए, फिर लौटकर आए नहीं...

"Sandeep Zorba"

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