Thursday, November 10, 2011
Wednesday, November 9, 2011
ज़रा देर से आज सुबह आई है,
रात शायद जाना भूल गयी होगी,
मै इंतज़ार में था कुछ परिंदों के,
बहुत देर तक, खडकी के पास बैठा रहा,
सूरज के चेहरे पर भी, कुछ थकान सी थी,
लगता है, वो भी कहानियाँ पढता है रातभर,
जल्दी में था, वो कहीं पहुचने की शायद,
मेरे घर पर, रौशनी डालना भी भूल गया,
पौधे बहुत उदास है, मेरी बगिया के,
ओस में आज, नहाये नहीं होंगे,
एक चुभन सी महसूस हुई, फिर आज होठों पर,
मेरी चाय के प्याले में, दरार निकल आई है,
ज़रा देर से आज सुबह आई है...
"Sandeep Zorba"
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