Monday, October 4, 2010

कभी सोचता हूँ कि मै क्या हूँ
हूँ कोई इन्सां या बहरूपिया हूँ
मेरे रूप है कई, अंदाज़ बहुत है
मुझे खुद की खुदी पे, नाज़ बहुत है
मै सोच हूँ कोई, या कोई नज़रिया हूँ
इन्सां हूँ कोई...

कभी धीर हूँ, गंभीर हूँ, सागर का बहता जैसे नीर हूँ
सोचता हूँ, समझता हूँ, ज़िंदगी कि खोज करता हूँ
शाम-ओ-शहर हर घडी, मै ये रोज़ करता हूँ
हँसता भी हूँ ज़िंदगी पर, जैसे कोई मजाकिया हूँ
इंसा हूँ कोई...

कभी हूँ इक बच्चा सा, कुछ कच्चा, कुछ पक्का सा, सीखना चाहता हूँ
हाँ देखी देखी है दूनिया काफी मैंने, अभी और देखना चाहता हूँ
देखता हूँ ज़िंदगी को, इक प्यासी निगाह से
कभी तो मिलेगी वो मुझे, खुद अपनी चाह से
इस रूप में कहू तो मै नौसिखिया हूँ
इन्सां हूँ कोई...

मै सबकुछ हूँ कभी, कभी कुछ भी नहीं
मै गलत हूँ ज्यादा या थोडा सही
मै भटकता हूँ अक्सर खुद अपनी तलाश में
होकर खुद से दूर कभी, कभी कुछ पास में
मै जीता हूँ ऐसे और ऐसे जिया हूँ
इन्सां हूँ कोई या बहरूपिया हूँ...!!

"Sandeep Zorba"