Monday, June 25, 2012


नींद ही तो टूटी है,
ख्वाब तो मगर, अब भी बाकी है...

बिछड़ के उससे, फिर मिलना हुआ न दोबारा,
वो भीड़ में नहीं, तन्हाई में खोया था...

प्यास थी, सो दर्द पी गया,
ज़ख्म इसके बाद फिर, अकेला रह गया..

जिंदगी धागों सी उलझी हुई है,
या उलझे है धागे जिंदगी बनकर...???



सूरज को निकलने में ज़रा देर क्या हुई
जुगनू निकल पड़े, उजाला करने...

Thursday, November 10, 2011


कभी चीखती है ख़ामोशी कानों में,
और रुआंसी, सी हो जाती है चेहरे की हंसी,
वो एक आवाज़ बजती है, कहीं दूर अब भी,
मै पागल नहीं, जो दौड़ता हूँ अनजान साए के पीछे,
घडी अब भी रुकी है उसी वक़्त पर,
दरवाजा भी एक आस लिए खुला है,
उड़ती है आँगन की धूल बेचैन होकर,
वो कदम जो गए, फिर लौटकर आए नहीं...

"Sandeep Zorba"

उन निगाहों के इस किनारे मै रहता हूँ,
उस किनारे उसकी है बसर,
बीच में जाने कौन ठहरा है,
मै जब भी, उसकी आँखों के शीशे में,
अपना चेहरा, देखने की कोशिश करता हूँ,
तो एक अनजान अक्स नज़र आता है,
कोई और शख्स नज़र आता है,
बीच में जाने कौन ठहरा है....

"Sandeep Zorba"